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वाह सन्त वाह
पूज्य सन्त श्री गंगाराम साहिब जे मेले ते असांजू लख लख वाधायूँ
सन्त की महिमा वेद न जाने, जीता कह ए दुआई बखाने ।
पूज्य सन्त श्री गंगाराम साहब का जीवन परिचय
संत साहब का जन्म सम्वत 1865 में सिंधी सावन माह की प्रथम एकादशी को सिन्ध प्रान्त के गांव ठारे खान लगारीय में हुआ था। सन्त साहब के पूज्य पिता श्री का नाम सन्त सामीराम साहब था। उनकी माता श्री का नाम आनन्दी बाई था। सन्त बचपन से ही सरल व शान्त स्वभाव के थे। उनके पिता श्री के प्रेम व भगवत भजन के कारण उनका ध्यान भी बचपन से सत्संग की ओर था।
सुबह को उठकर सर्वप्रथम वे अपनी माता व अपने पिता के चरणो में सिर झुकाकर आर्शीवाद प्राप्त करते थे। यह उनका प्रतिदिन का नियम था। कभी कोई सन्त मण्डली उनके घर आ जाती तो वे बड़ी श्रद्धा व खुशी से उनकी सेवा में लग जाया करते थे। सन्तो के लिए उनके हृदय में प्रेम व श्रद्धा थी। थोड़े दिनों में सन्त को प्रसिद्ध मिलती गई। सब जगह इसका प्रचार हुआ सभी लोग सन्त साहब की प्रशंसा करने लगे। सन्त साहिब गंगाराम जी ने सन्त हाथीराम को अपना गुरु माना व उनसे गुरुमंत्र व दीक्षा प्राप्त की। उनकी प्रेरणा से वे गृहस्थ आश्रम में ही रहे और उसे पूरा निभाया। मोह ममता से दूर रहे और सांसारिक सुखों के उपभोग से परे रहे धन-दौलत इकट्ठा करने की प्रवृति नहीं थी वे उससे निरलेप रहते थे। वे सादगी पसन्द थे। सन्त साहब ज्ञान के भण्डार और ईश्वरीय भजन भक्ति में समर्पित थे। वे सम-दृष्टा थे, किसी में भी छोटे-बड़े व ऊँच-नीच का भेदभाव नहीं रखते थे। झूठी शान, अपनी बढ़ाई, अहंकार उनके अन्दर नहीं था। झूठ तो उनके मन में लेशमात्र भी नहीं था। उनका चित्त सदैव अपने आत्म स्वरुप आनन्द में लीन रहता था। इस तरह के महापुरुष इस संसार में अज्ञानी जीवों को पवित्र करने हेतु अवतार लेते है। जिनकी याद में हर साल बर्सिया मनाई जाती हैं, मेले लगते हैं और लोग अपनी श्रद्धा के फूल समर्पित करते हैं।
संसार में संतों का स्थान सबसे ऊँचा है। देवता और मनुष्य, राजा और प्रजा सभी सच्चे संतों को अपने से बढ़कर मानते हैं। संत का ही जीवन सार्थक होता है। अतएव सभी लोगों को संत भाव की प्राप्ति के लिये भगवान् के शरण होना चाहिये। यहाँ एक प्रश्न होता है कि संतभाव की प्राप्ति प्रयत्न से होती है या भगवत्कृपा से अथवा दोनों से? यदि यह कहा जाय कि वह केवल प्रयत्न-साध्य है तो सब लोग प्रयत्न करके संत क्यों नहीं बन जाते? यदि कहें कि भगवत्कृपा से होती है तो भगवत्कृपा सदा सब पर अपरिमित है ही, फिर सबको संत भाव की प्राप्ति क्यों नहीं हो जाती? दोनों से कही जाय तो फिर भगवत् कृपा का महत्त्व ही क्या रह गया, क्योंकि दूसरे प्रयत्नों के सहारे बिना केवल उससे भगवत्प्राप्ति हुई नहीं?" इसका उत्तर यह है कि भगवत्प्राप्ति यानी संतभाव की प्राप्ति भगवत्कृपा से ही होती है। वास्तव में भगवतप्राप्त पुरुष को ही, संत कहा जाता है। सत पदार्थ केवल परमात्मा है और परमात्मा के यथार्थ तत्त्व को जो जानता है और उसे उपलब्ध कर चुका है वही संत है। हाँ गौणी वृत्ति से उन्हें भी संत कह सकते हैं जो भगवत्प्राप्ति के पात्र है , क्योंकि वे भगवत्प्राप्तिरूपी लक्ष्य के समीप पहुँच गये हैं और शीघ्र उन्हें भगवत्प्राप्ति की सम्भावना है। इस पर यह शंका होती है कि जब परमात्मा की कृपा सभी पर है, तब सभी को परमात्मा की प्राप्ति हो जानी चाहियेय | परंतु ऐसा क्यों नहीं होता? इसका उत्तर यह है कि यदि परमात्मा की प्राप्ति की तीव्र चाह हो और भगवत्कृपा में विश्वास हो तो सभी को प्राप्ति हो सकती है। परंतु परमात्मा की प्राप्ति चाहते ही कितने मनुष्य हैं, तथा परमात्मा की कृपा पर विश्वास ही कितनों को हैं? जो चाहते हैं और जिनका विश्वास है उन्हें प्राप्ति होती ही है।